Tuesday, August 30, 2011
Thursday, August 18, 2011
प्रभु से मिलने की चाहत
1. यूनिवर्स , जीवन और जीव
ब्रहमांड में,प्राप्त जानकारी के अनुसार, मनुष्य ही प्रभु के स्वप्न-निर्माण का सबसे विकसित प्राणी है.इसका शरीर और मस्तिष्क दोनों ही सब प्राणियों में सबसे अधिक विकिसित हैं. मनुष्य किसी अन्य सौर मंडल मे भी प्राणी रूप में है इसका पता सौर मंडल के वैज्ञानिकों अभी नहीं है.
2. आवश्यकता प्रभु से मिलने की .
प्रभु ने मनुष्य को पञ्च चेतनाओं द्वारा इस धरती से बांध रखा है. उसका वस्तु-चेतन्य देखने,सुनने,सूंघने,जुबान से बोलने तथा चखने और छूने की चेतनाओं से पूर्ण रूप से बंधा हुआ है. वस्तु चेतन्य ने उसे धरती की वस्तुओं तथा अन्य प्राणियों से जोड़ा हुआ है. प्रभु वस्तु चेतना से परे हैं. उन्हें समझने,उनके करीब जाने की मनुष्य को बहुत आवश्यकता है. क्योंकि वो प्रभु का एक अंश है,उसका शरीर और आत्मा उनसे सदा जुड़ा रहना चाहिए.
दूसरा कारण ये है कि अपनी चेतनाओं द्वारा मनुष्य हर भावना के दो रूपों के बीच झूलता रहता है हर वक्त. जैसे कि दुःख है तो उसका पूरक सुख है, अच्छा का पूरक बुरा है, दोस्ती का पूरक दुश्मनी है. हर भावना के दो रूप हैं, एक दूसरे के पूरक, उसके dillusion या confusion मे मनुष्य हमेशा समाया रहता है.यही साथ रहने वाले दुःख का कारण है.जब तक शरीर मैं है दुःख सहता रहता है. प्रभु को जानने और उनके करीब जाने से सदा साथ रहनेवाल दुःख कम हो सकता है या बिलकुल ही ख़तम हो सकता है प्रभु के मिल जाने से .
तीसरा कारण है ख़ुशी और आनंद, जो मनुष्य की जिन्दगी मे सर्वोपरी है. अपनी चेतनाओं के माध्यम से मनुष्य को जो खुशी और आनंद मिलता है वो छणिक या कुछ समय के लिए होता है. जबकि प्रभु से नजदीकी या मिलन अपूर्व आनंद देता है जो सदा के लिए स्थायी है. इस आनंद कि कोई तुलना नहीं,जैसे कि विशाल सागर पानी की एक बूद से नहीं .
3. कॉस्मिक नियम और प्रभु से मिलने का रास्ता
प्रभु निर्मित पहला कास्मिक नियम है कि जिस जगह या गृह का प्राणी हो ,उसी से जुड़ा रहे या बंधा रहे. इसीके लिए प्रभु ने हर गृह को अपनी गुरुत्वाकर्षण शक्ति( Gravitational Force ) में बांध रखा है. दूसरा ये कि प्राणी दी गयी चेतनाओं द्वारा वास्तु-चेतना से बंधा रहे.मगर प्रभु ने मनुष्य को मस्तिष्क दिया है और इतनी बुद्धि दी है कि वह वास्तु-चेतना (Material Sense ) को देवीय-चेतना ( Divine Sense ) में परिवर्तित कर सकता है.
मनुष्य अपनी तेज बुद्धि द्वारा वास्तु-चेतनता और देवीय-चेतनता दोनों में रह सकता है,अलग अलग समय में या साथ साथ भी.
प्रभु वास्तु चेतन्य से परे हैं, इसलिए प्रभु द्वारा दी गयी चेतनाओं से उन्हें समझना कठिन है.
नयी चेतना( Intution ) या देवीय-चेतना (Divine-Sense) को जनम लेना होगा मनुष्य मे. इस चेतना का ज्यों ज्यों विस्तार होता जाऐगा त्यों त्यों प्रभु को समझना आसान होगा.
दैविक शक्ति (DivinePower) का अहसास केवल कल्पना से या जानने की ऊँची दशा में जोर लगा के पहुँचने का प्रयत्न करने से नहीं होगा. यह आता है सहनशक्ति (Patience ), योग अभ्यास मे स्वयं को निरूपित करने(Meditation) और भक्ति (devotion ) से.
योग अभ्यास का अर्थ है प्रभु से जुड़ने या मिलने का लगातार प्रयत्न. शाश्त्रों मे कई तरह के योग बताये गए हैं. राज योग,भक्ति योग और मंत्र योग प्रमुख हैं. सद गुरुओं ने इनका बारीकी से अध्यन किया है और कई आसान रास्ते सुझाये हैं.
मेरी समझ से योग किसी तरह का हो,नयी चेतना का मनुष्य में विकसित होना बहुत आवश्यक है. प्रभु से मिली पञ्च चेतनाएं जब तक सुचारू हैं, प्रभु से योग नहीं संभव है. मनुष्य कुछ ऐसी क्रिया करना सीखे जिससे दी गयी पञ्च चेतनाओं का उपयोग न के बराबर हो. उस समय नयी चेतना विकसित होगी जो उसे प्रभु के करीब ले आएगी.
4. जल्दी प्रभु तक पहुँचने का रास्ता (Highway )
शाश्त्रों और सद गुरुओं के बताये अनेक रास्ते हैं योग के, उनमें से कुछ लम्बे हैं, कुछ छोटे हैं और कुछ जल्दी प्रभु तक पहुँचने के रास्ते(Highways ) भी हैं.
राज योग की क्रिया योग प्राणायाम (Life Force Control ) ,प्रभु तक जल्दी पहुँचने का एक रास्ता (Highway ) है.
जीवन-शक्ति (Life Force ) वास्तु और आत्मा के बीच की कड़ी (Link) है. शक्ति का बहाव बाहर की ओर होता है जब पञ्च चेतनाओं का उपयोग किसी भी रूप मे होता है. यदि शक्ति का बहाव उलट दें यानि आंतरिक हो जाये तो वास्तु चेतना पिघलने लगेगी और अलौकिक चेतना में परिवर्तित हो जायेगी. यही प्रभु के करीब होने का आनंद देगी.
प्राणायाम, जैसे कि क्रिया योग, द्वारा जीवन-शक्ति के बाहरी बहाव को रोकने में सफलता मिलती है. यह योग बाहरी चेतना के प्रयोग जैसे स्वांस,ह्रदय और पञ्च चेतनाओं की जीवन-गति को कम करता है. इस योग क्रिया द्वारा पारंगत योगी शक्ति का बाहरी उपयोग बिलकुल नहीं करते यानि ह्रदय क्रिया,स्वांस क्रिया तथा पञ्च चेतनाओं की क्रिया रुक जाती है.
5.अन्य आवश्यकताएं और प्रभु का आशीर्वाद
प्रभु ने मनुष्य को शरीर दिया है और खुद स्वयं शरीर नहीं है ,शरीर से परे है. मनुष्य को प्रभु के करीब जाना है तो इस शरीर के साथ ही उन तक पहुंचना होगा अपने जीवन काल में.इस शरीर के रहते जो प्रयत्न संभव है वो शरीर छोड़ने के बाद नहीं. शरीर और उसकी चेतनाओं का यदि उपयोग करना है तो उसके लिए शरीर स्वस्थ होना चाहिए. मुझे लगता है जैसे प्रभु कह रहे हों 'जो कुछ तुम्हें शरीर रूप में दिया है,उसे ही ठीक नहीं रख सके तो तुम मुझ तक पहुँचने के योग्य नहीं हो'. शरीर को नियमित व्यायाम द्वारा स्वस्थ रखा जा सकता है.
ध्यान (Meditation) द्वारा प्रभु में मन और मस्तिष्क को संचेत (Concentrate ) किया जा सकता है. संगीत और प्रार्थना भी मन को प्रभु की ओर मोड़ सकती है.
प्रतिदिन जाग्रत अवस्था में हम अपनी चेतनाओं का लगातार उपयोग करते हैं. जब तक चेतनाओं से जुड़े हैं तब तक मस्तिष्क हमें धरती की वस्तुओं से बांधे हुए है. इसलिए प्रभु में ध्यान लगाने के लिए शरीर को स्थिर रख कर , चेतनाओं का उपयोग न करते हुए, प्रतिदिन नियमित रूप से एक या दो बार कुछ समय ध्यान (Meditation) करें.
अभ्यास करना आवश्यक है. लगातार अभ्यास से चेतना आएगी ओर मन स्थिर होता जायेगा.
हम यदि किसी व्यक्ति से अगर मिलना चाहें तो उसकी स्वीक्रति ओर उसकी इच्छा से ही मिलना संभव है. इसी तरह प्रभु तक पहुँचने के लिए उनकी सहमती तथा आशीर्वाद की आवश्यकता है. प्रभु ने अपने घर के दरवाजे सभी के लिए खोल रखे हैं, मगर उन तक पहुँचने के लिए पूर्ण आस्था ओर प्रेम की आवश्यकता है. जिसको केवल उनसे मिलने ही की इच्छा है, उनसे अनन्य प्रेम है उसको उनका आशीर्वाद प्राप्त है. वो ऐसे मनुष्य से सदा मिलते रहेंगे, समय की कोई पाबन्दी नहीं होगी.
6. प्रभु से हमारी दूरी और उनतक पहुचने के लिए समय
प्रभु सब जगह हैं, हमारे भीतर भी ओर हमारे बाहर भी - इस सम्पूर्ण ब्रहमांड में. जितनी दूरी हमारी चेतना रखे,उतने ही दूर प्रभु से हम. चेतना पर परदे ही परदे हैं -वस्तुओं के, इच्छाओं के,वासनाओं के. इस मायाजाल से मन को बाहर निकालने में जो मनुष्य सफल होगया,उससे प्रभु की कोई दूरी नहीं ,ना स्थान की ,ना समय की
7. मंतव्य मैं यह कहना चाहूँगा कि हम प्रभु से मिलने कि इच्छा को अपनी अन्य वास्तु-इच्छाओं से ऊपर रखें. अपनी चेतना को विकसित करें. विकास मैं समय लग सकता है .इस बारे मैं एक चीनी कथा है. किसी चीनी गाँव में बांस का पेड़ लगाने के लिए जमीन में बीज लगाया गया. वहां के लोग उसका ध्यान रखते ,उसमें समय से रोज पानी डालते. एक साल हो गया ,फिर दो ,तीन ,चार ,पांच ओर छे साल गुजर गए ,मगर बांस का पेड़ नहीं उगा. पर लोगों ने अपना प्रयत्न जारी रखा ,हमेशा खाद ,पानी देते रहे ओर फिर यकायक एक दिन बांस का पौधा जमीन से बाहर निकल आया.धीरे धीरे पूरे बांस के पेड़ में परिवर्तित हो नब्बे फीट तक ऊँचा हुआ. उसी तरह यदि हम प्रभु से मिलने कि चाहना को ठीक प्रकार से पल्लवित करते रहेंगे तो यकायक किसी दिन प्रभु जरूर हमारे सामने होंगे.हो सकता है हमारे कर्म इतने शुद्ध ना हों, की इस जन्म या अगले जन्म (Next Incarnation ) तक भी प्रभु के दर्शन नहीं हों, मगर हम प्रभु की संतान हैं, लगातार प्रभु से मांगते रहने का अधिकार है -
तेरा फकीर हूँ ईशु, मुझे तमाम से दे,
मुहम्मद ओ फातमा के नाम से दे.
राम,श्याम ओ भवानी के नाम से दे,
हल्की सी झलक अपनी दिखा तो दे.
Thursday, August 11, 2011
जियो इस पल
गुजरा पल अब आपका रहा नहीं,
आनेवाले पल का कुछ पता नहीं,
ऐसे पल का क्यों कर रहे इंतजार.
कौन जाने किसका गर आपका नहीं.
जब झूला जिंदंगी का तेज- तेज झूले,
निर्णय केन्द्रित दिमाग से पल पल ले लें.
रखें दिमागी संतुलन युद्द - लड़ाके जैसा,
गिरी तलवार उठालें हमला होने से पहले.
इस पल के हों बल्लेबाज,
आती गेंद पर नजरें-बाज.
ध्यान बना रहे पल आज,
वही निशाना जीते, ताज.
आनेवाले पल का कुछ पता नहीं,
ऐसे पल का क्यों कर रहे इंतजार.
कौन जाने किसका गर आपका नहीं.
जब झूला जिंदंगी का तेज- तेज झूले,
निर्णय केन्द्रित दिमाग से पल पल ले लें.
रखें दिमागी संतुलन युद्द - लड़ाके जैसा,
गिरी तलवार उठालें हमला होने से पहले.
इस पल के हों बल्लेबाज,
आती गेंद पर नजरें-बाज.
ध्यान बना रहे पल आज,
वही निशाना जीते, ताज.
Thursday, August 4, 2011
एकाग्रता और ध्यान
एकाग्रता और ध्यान
क्रियात्मक ध्यान पूरी तरह जीवन मे लाना आवश्यक है .
यदि चाहत ज्यादा है तो सीखना होगा ज्यादा .
खुद को सिखाओ बार बार.
नियमित अभ्यास करना एक प्रकार का अनुशाशन है.
अभ्यास मीठा हो, खट्टा अभ्यास न हो.
मीठे से मतलब है कि आनंद से भरा,एकाग्रता से किया गया क्रियात्मक वास्तविक अभ्यास हो .
यह मान के चलो कि 'मै इमानदार हूँ , मेरा योग्य मस्तिष्क है, मै औरों के कार्यकलाप पर ध्यान न दे कर,स्वयं पर स्थिर करना चाहता हूँ.'
एकाग्रता पहली सीढ़ी है आध्यात्मिक पथ की.
प्रतिस्पर्धा करो औरों से नहीं स्वयं से.
आलोचना करो स्वयं की - कि क्या कर रहे हो, क्या नहीं कर रहे हो.
हर नियम समझ न आये या शायद हर नियम समझने के योग्य हम न हों.
मगर लगातार सीखना जारी हो, एक चाहत हो.
समझ खुद बखुद आगे बढ़ेगी.
आध्यात्मिक पथ पर आगे जाने का विश्वास बढेगा.
केवल अभ्यास हर दिन किया जाने वाला काम न रह के एक अपूर्व आनंद मैं बदल जाए.
क्रियात्मक ध्यान पूरी तरह जीवन मे लाना आवश्यक है .
यदि चाहत ज्यादा है तो सीखना होगा ज्यादा .
खुद को सिखाओ बार बार.
नियमित अभ्यास करना एक प्रकार का अनुशाशन है.
अभ्यास मीठा हो, खट्टा अभ्यास न हो.
मीठे से मतलब है कि आनंद से भरा,एकाग्रता से किया गया क्रियात्मक वास्तविक अभ्यास हो .
यह मान के चलो कि 'मै इमानदार हूँ , मेरा योग्य मस्तिष्क है, मै औरों के कार्यकलाप पर ध्यान न दे कर,स्वयं पर स्थिर करना चाहता हूँ.'
एकाग्रता पहली सीढ़ी है आध्यात्मिक पथ की.
प्रतिस्पर्धा करो औरों से नहीं स्वयं से.
आलोचना करो स्वयं की - कि क्या कर रहे हो, क्या नहीं कर रहे हो.
हर नियम समझ न आये या शायद हर नियम समझने के योग्य हम न हों.
मगर लगातार सीखना जारी हो, एक चाहत हो.
समझ खुद बखुद आगे बढ़ेगी.
आध्यात्मिक पथ पर आगे जाने का विश्वास बढेगा.
केवल अभ्यास हर दिन किया जाने वाला काम न रह के एक अपूर्व आनंद मैं बदल जाए.
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