क्रियायोग क्या है ?
1 क्रिया योग विज्ञान एक विशिष्ट कर्म या विधि है जिसके द्वारा अनंत परमतत्व (परमात्मा) के साथ मिलन (योग ) संभव है.यह एक सरल प्रणाली है जिसके द्वारा मानव रक्त कार्बन रहित हो कर आक्सीजन से परिपूरित हो जाता है, इसके अलावा हवा में मिश्रित प्राण शक्ति मस्तिष्क और मेरुदंड के चक्रों में नवशक्ति का संचार कर देती है.
एक पुरातन विज्ञान
2 . भगवान कृष्ण भगवत गीता में कहते हैं,"मैंने ही (अपने पूर्व अवतार में ) यह अविनाशी योग एक प्राचीन ज्ञानी विवस्वत (सूर्य) को दिया था, विवस्वत ने इसे अपने पुत्र महान स्म्रतिकार मनु को और मनु ने सूर्यवंश के संस्थापक इछ्वाकू को दिया.इस प्रकार परंपरा से प्राप्त इस राजयोग को राजर्षियों ने जाना ; किन्तु, हे परंतप अर्जुन ! उसके बाद यह योग बहुत काल से इस प्रथ्वीलोक में लुप्तप्राय हो गया." आधुनिक युग में इस अविनाशी राजयोग विज्ञान को महावातार बाबाजी,श्यामाचरण लहरी महाशय,स्वामी श्री युक्तेश्वर और परमहंस योगानंद ने आगे बढाया तथा अपने शिष्यों में वितरित किया.
प्राणशक्ति नियंत्रण का प्राणायाम
3 . क्रियायोगी मन से अपनी प्राणशक्ति को मेरुदंड के छह चक्रों में ऊपर नीचे घुमाता है.मेरुदंड के छय चक्रों में पहला है मूलाधार,दूसरा स्वाधिष्ठान,तीसरा मणिपुर,चौथा अनाहत,पांचवां विशुद्ध और छटा आज्ञा चक्र.प्राणशक्ति को संस्कृत में कुण्डलिनीशक्ति कहा जाता है. यह देविकशक्ति हरेक मानव में होती है. बिना प्राणशक्ति के जीवन संभव नहीं है.जब से मां के उदर में नवजीवन प्रारंभ होता होता है,नए जीव में कुण्डलिनीशक्ति चक्रों को बनाना शुरू करती है. जब उदर में मानव शरीर बनता है तो प्राणशक्ति पहले चक्र पर केन्द्रित रहती है. पहला चक्र यानि मूलाधार जो प्रथ्वी चक्र है. मानव शरीर अपनेआप एक मानसिक ढक्कन पहले चक्र पर रख देता है. कहा जाता है की ये प्राणशक्ति पहले चक्र में सोती है.ये सत्य नहीं है क्योंकि कुण्डलिनीशक्ति पहले चक्र में लगातार घड़ी की विपरीत दिशा में गोल गोल घुमती रहती है.कुछ प्राणशक्ति पहले चक्र से बाहर निकल आती है और सारे शरीर में बहती है. बिना प्राणशक्ति बहने के शरीर में, मानव जीवन संभव नहीं है. ये जरा सी प्राणशक्ति है, कुल विशाल प्राणशक्ति की तुलना में जो की मूलाधार चक्र में केन्द्रित है, मानव जीवन चलने के लिए आवश्यक है.
प्राणशक्ति और नाड़ीयां
4 . 72000 नाड़ियों में से, मानव शरीर में छह मुख्य नाड़ियों का समूह है, जो सब का नियंत्रण करती हैं. ये मुख्य नाड़ीयां मूलाधार चक्र से शुरू हो कर शरीर के मध्य से सर तक जातीं हैं.नाड़ीयां प्राणशक्ति के शरीर में विचरने का वाहन हैं. इनमे से तीन ( इडा,पिंगला ओर सुष्मना) शरीर के मेरुदंड में और उसके डेढ़ इंच दोनों ओर से ऊपर की तरफ जाती हैं. दो मुख्य नाड़ीयां, इडा ओर पिंगला, जो की मेरुदंड के दोनों ओर से, प्राणशक्ति को चक्र समूह से होते हुए सर तक लाती हैं.ये सुक्छ्म प्राणशक्ति केवल शरीर के दिन प्रतिदिन के कार्य को संचालित ओर नियंत्रित करती है. बाकि चार नाड़ीयां,सुष्मना,मेढा,सरस्वती ओर लक्ष्मी, मानव शरीर में प्रायः सुप्त या बंद रहतीं हैं.मेढा,सरस्वती ओर लक्ष्मी नाड़ीयां मानव शरीर में सामने की तरफ हैं,ये मूलाधार चक्र से शुरू होकर शरीर के सर तथा टेम्पोरल मंदिबुलर जोड़, कान की शुरुवात पर जाती हैं जहाँ जबड़े की हड्डी और गाल मिलते हैं. क्रिया द्वारा आध्यात्मिक उन्नति होती है, प्राणशक्ति का बहाव इडा ओर पिंगला नाड़ीयों के अलावा अन्य चार मुख्य नाड़ीयों द्वारा भी होने लगता है. क्रिया योग द्वारा प्राणशक्ति जब पूरी तरह से Reactivate हो जाती है तब प्राणशक्ति परवहन सुष्मना,मेढा ,लक्ष्मी ओर सरस्वती नाड़ीयों द्वारा होने लगता है.तब इडा पिंगला नाड़ीयां सुप्त या बंद हो जाती हैं.
घूमते चक्र और प्राणशक्ति
5 .चक्र देविक शक्ति केंद्र हैं जिनसे सारे अनुभवों का जन्म होता है.ये घूमति प्राणशक्ति के केंद्र हैं जिनके द्वारा मानव शरीर ब्रह्माण्ड से ब्रह्म प्राणशक्ति लेता,देता और उसे ग्राहकरके शरीर के व्यवहार लायक करता है. ईशु द्वारा दी गयी प्राणशक्ति या कुंडालीनीशक्ति पहले मूलाधार चक्र या सातवें सहस्त्रधार चक्र मैं केन्द्रित रहती है. मूलाधार चक्र प्रथ्वी या उससे जुडी वस्तुओं से जुड़ा है.सहस्त्रधार चक्र सत्य कम्पन करता है जहाँ आत्म-चेतन्यता या प्रभु-चेतन्यता निवास करती है.प्राणशक्ति यदि सातवें चक्र तक आती है, पर वहां उसे सदा केन्द्रित नहीं किया जा सकता, वो फिर निचले चक्रों की तरफ जाती है. क्रियायोगी प्राणशक्ति को मूलाधार चक्र से ऊपर की और सहस्त्रधारचक्र तक परिवहन करता है. प्राणशक्ति का चक्रों में ऊपर - नीचे परिवहन आध्यात्मिक उन्नति करता है. क्रियायोगी प्राणशक्ति का ये परिवहन मेरुदंड स्थित सुष्मना नाड़ी द्वारा करता है. इस क्रिया को बारबार दुहराने से मेरुदंड प्राणशक्ति से चुम्कीय हो जाता है. मानव शरीर की वस्तु जुडी चेतन्यता जो साधारणतया मूलाधार चक्र में स्थित रहती है, ऊपर स्थित चक्रों की ओर बढ़ने लगती है. अंत में चेत्नयता सातवें चक्र, सहस्त्रधार में केन्द्रित हो जाती है,जहाँ इछ्चा,वासना नहीं रहती है, ओर मानव पूर्ण स्वच्छ बनकर भगवन की द्रष्टि में निरापद बन जाता है .
6. प्राणशक्ति पदार्थ और आत्मा के बीच की कड़ी है.शक्ति का बाहरी बहाव शारीरिक चेतनाओं द्वारा मनुष्य को सांसारिक आनंद की ओर ले जाता है,जबकि आतंरिक बहाव शारीरिक चेतनता को संतोषप्रद अनंत ईश्वरीय आनंद की ओर खींचता है.साधक दो संसारों के बीच खड़ा है, एक तरफ ईशु की दुनिया का दरवाजा,तो दूसरी ओर शारीरिक चेतनाओं से लड़ाई.शारीरिक चेतनाएं जैसे देखना,सुनना,खाना,सम्भोग या लिंग द्वारा धातु-उच्छलन , साँस लेना,छूना,बोलना,सोंचना,अंगों को हिलाना,चलाना आदि में प्राण शक्ति का बाहरी बहाव होता है, और इसका व्यय होता है. चलायमान चेतनाओं से दिमाग और प्राणशक्ति को हटाना ही योग साधक का कठिन अभ्यास है.क्रिया योग के लगातार अभ्यास से वह प्राणशक्ति के बहाव को मूलाधार चक्र से मेरुदंड होते हुए कूटस्थ चेतन्य यानि आज्ञा चक्र तक ले जाये और वापस मूलाधार चक्र तक लाये. इस क्रिया के लगातार अभ्यास के बाद कुछ समय तक निश्चल हो कर बैठे.उस समय मस्तिष्क का शरीर और बाहरी वातावरण से ध्यान हट जायेगा. ईशु का ध्यान करने से वस्तु- चेतना देविक चेतना में परिवर्तित हो जाएगी और अनन्य शांति की प्राप्ति होगी.
मंतव्य
7 . क्रिया योग अभ्यास सद गुरु से दीक्षा लेने के बाद ही अक्षरश प्रणाली के अनुसार आरम्भ करना चाहिए.
8 . अभ्यास पूरे विश्वास,तन्मयता और बिना नागा प्रतिदिन दो बार होना चाहिए.
9 .हमारे स्वामी लहरी महाशय के अनुसार साधक की कोई भी समस्या हो, उसके समाधान के लिए क्रियायोग करें.
10.शांति योजनाए,नए कानून समाज को नहीं बदल सकते. मनुष्य का अंतरिम आत्मिक परिवर्तन(Inner Spiritual Transformation)ही रास्ता है इस संसार को आनंदमय रहनेयोग्य स्थान बनाने का. 1 क्रिया योग विज्ञान एक विशिष्ट कर्म या विधि है जिसके द्वारा अनंत परमतत्व (परमात्मा) के साथ मिलन (योग ) संभव है.यह एक सरल प्रणाली है जिसके द्वारा मानव रक्त कार्बन रहित हो कर आक्सीजन से परिपूरित हो जाता है, इसके अलावा हवा में मिश्रित प्राण शक्ति मस्तिष्क और मेरुदंड के चक्रों में नवशक्ति का संचार कर देती है.
एक पुरातन विज्ञान
2 . भगवान कृष्ण भगवत गीता में कहते हैं,"मैंने ही (अपने पूर्व अवतार में ) यह अविनाशी योग एक प्राचीन ज्ञानी विवस्वत (सूर्य) को दिया था, विवस्वत ने इसे अपने पुत्र महान स्म्रतिकार मनु को और मनु ने सूर्यवंश के संस्थापक इछ्वाकू को दिया.इस प्रकार परंपरा से प्राप्त इस राजयोग को राजर्षियों ने जाना ; किन्तु, हे परंतप अर्जुन ! उसके बाद यह योग बहुत काल से इस प्रथ्वीलोक में लुप्तप्राय हो गया." आधुनिक युग में इस अविनाशी राजयोग विज्ञान को महावातार बाबाजी,श्यामाचरण लहरी महाशय,स्वामी श्री युक्तेश्वर और परमहंस योगानंद ने आगे बढाया तथा अपने शिष्यों में वितरित किया.
प्राणशक्ति नियंत्रण का प्राणायाम
3 . क्रियायोगी मन से अपनी प्राणशक्ति को मेरुदंड के छह चक्रों में ऊपर नीचे घुमाता है.मेरुदंड के छय चक्रों में पहला है मूलाधार,दूसरा स्वाधिष्ठान,तीसरा मणिपुर,चौथा अनाहत,पांचवां विशुद्ध और छटा आज्ञा चक्र.प्राणशक्ति को संस्कृत में कुण्डलिनीशक्ति कहा जाता है. यह देविकशक्ति हरेक मानव में होती है. बिना प्राणशक्ति के जीवन संभव नहीं है.जब से मां के उदर में नवजीवन प्रारंभ होता होता है,नए जीव में कुण्डलिनीशक्ति चक्रों को बनाना शुरू करती है. जब उदर में मानव शरीर बनता है तो प्राणशक्ति पहले चक्र पर केन्द्रित रहती है. पहला चक्र यानि मूलाधार जो प्रथ्वी चक्र है. मानव शरीर अपनेआप एक मानसिक ढक्कन पहले चक्र पर रख देता है. कहा जाता है की ये प्राणशक्ति पहले चक्र में सोती है.ये सत्य नहीं है क्योंकि कुण्डलिनीशक्ति पहले चक्र में लगातार घड़ी की विपरीत दिशा में गोल गोल घुमती रहती है.कुछ प्राणशक्ति पहले चक्र से बाहर निकल आती है और सारे शरीर में बहती है. बिना प्राणशक्ति बहने के शरीर में, मानव जीवन संभव नहीं है. ये जरा सी प्राणशक्ति है, कुल विशाल प्राणशक्ति की तुलना में जो की मूलाधार चक्र में केन्द्रित है, मानव जीवन चलने के लिए आवश्यक है.
प्राणशक्ति और नाड़ीयां
4 . 72000 नाड़ियों में से, मानव शरीर में छह मुख्य नाड़ियों का समूह है, जो सब का नियंत्रण करती हैं. ये मुख्य नाड़ीयां मूलाधार चक्र से शुरू हो कर शरीर के मध्य से सर तक जातीं हैं.नाड़ीयां प्राणशक्ति के शरीर में विचरने का वाहन हैं. इनमे से तीन ( इडा,पिंगला ओर सुष्मना) शरीर के मेरुदंड में और उसके डेढ़ इंच दोनों ओर से ऊपर की तरफ जाती हैं. दो मुख्य नाड़ीयां, इडा ओर पिंगला, जो की मेरुदंड के दोनों ओर से, प्राणशक्ति को चक्र समूह से होते हुए सर तक लाती हैं.ये सुक्छ्म प्राणशक्ति केवल शरीर के दिन प्रतिदिन के कार्य को संचालित ओर नियंत्रित करती है. बाकि चार नाड़ीयां,सुष्मना,मेढा,सरस्वती ओर लक्ष्मी, मानव शरीर में प्रायः सुप्त या बंद रहतीं हैं.मेढा,सरस्वती ओर लक्ष्मी नाड़ीयां मानव शरीर में सामने की तरफ हैं,ये मूलाधार चक्र से शुरू होकर शरीर के सर तथा टेम्पोरल मंदिबुलर जोड़, कान की शुरुवात पर जाती हैं जहाँ जबड़े की हड्डी और गाल मिलते हैं. क्रिया द्वारा आध्यात्मिक उन्नति होती है, प्राणशक्ति का बहाव इडा ओर पिंगला नाड़ीयों के अलावा अन्य चार मुख्य नाड़ीयों द्वारा भी होने लगता है. क्रिया योग द्वारा प्राणशक्ति जब पूरी तरह से Reactivate हो जाती है तब प्राणशक्ति परवहन सुष्मना,मेढा ,लक्ष्मी ओर सरस्वती नाड़ीयों द्वारा होने लगता है.तब इडा पिंगला नाड़ीयां सुप्त या बंद हो जाती हैं.
घूमते चक्र और प्राणशक्ति
5 .चक्र देविक शक्ति केंद्र हैं जिनसे सारे अनुभवों का जन्म होता है.ये घूमति प्राणशक्ति के केंद्र हैं जिनके द्वारा मानव शरीर ब्रह्माण्ड से ब्रह्म प्राणशक्ति लेता,देता और उसे ग्राहकरके शरीर के व्यवहार लायक करता है. ईशु द्वारा दी गयी प्राणशक्ति या कुंडालीनीशक्ति पहले मूलाधार चक्र या सातवें सहस्त्रधार चक्र मैं केन्द्रित रहती है. मूलाधार चक्र प्रथ्वी या उससे जुडी वस्तुओं से जुड़ा है.सहस्त्रधार चक्र सत्य कम्पन करता है जहाँ आत्म-चेतन्यता या प्रभु-चेतन्यता निवास करती है.प्राणशक्ति यदि सातवें चक्र तक आती है, पर वहां उसे सदा केन्द्रित नहीं किया जा सकता, वो फिर निचले चक्रों की तरफ जाती है. क्रियायोगी प्राणशक्ति को मूलाधार चक्र से ऊपर की और सहस्त्रधारचक्र तक परिवहन करता है. प्राणशक्ति का चक्रों में ऊपर - नीचे परिवहन आध्यात्मिक उन्नति करता है. क्रियायोगी प्राणशक्ति का ये परिवहन मेरुदंड स्थित सुष्मना नाड़ी द्वारा करता है. इस क्रिया को बारबार दुहराने से मेरुदंड प्राणशक्ति से चुम्कीय हो जाता है. मानव शरीर की वस्तु जुडी चेतन्यता जो साधारणतया मूलाधार चक्र में स्थित रहती है, ऊपर स्थित चक्रों की ओर बढ़ने लगती है. अंत में चेत्नयता सातवें चक्र, सहस्त्रधार में केन्द्रित हो जाती है,जहाँ इछ्चा,वासना नहीं रहती है, ओर मानव पूर्ण स्वच्छ बनकर भगवन की द्रष्टि में निरापद बन जाता है .
6. प्राणशक्ति पदार्थ और आत्मा के बीच की कड़ी है.शक्ति का बाहरी बहाव शारीरिक चेतनाओं द्वारा मनुष्य को सांसारिक आनंद की ओर ले जाता है,जबकि आतंरिक बहाव शारीरिक चेतनता को संतोषप्रद अनंत ईश्वरीय आनंद की ओर खींचता है.साधक दो संसारों के बीच खड़ा है, एक तरफ ईशु की दुनिया का दरवाजा,तो दूसरी ओर शारीरिक चेतनाओं से लड़ाई.शारीरिक चेतनाएं जैसे देखना,सुनना,खाना,सम्भोग या लिंग द्वारा धातु-उच्छलन , साँस लेना,छूना,बोलना,सोंचना,अंगों को हिलाना,चलाना आदि में प्राण शक्ति का बाहरी बहाव होता है, और इसका व्यय होता है. चलायमान चेतनाओं से दिमाग और प्राणशक्ति को हटाना ही योग साधक का कठिन अभ्यास है.क्रिया योग के लगातार अभ्यास से वह प्राणशक्ति के बहाव को मूलाधार चक्र से मेरुदंड होते हुए कूटस्थ चेतन्य यानि आज्ञा चक्र तक ले जाये और वापस मूलाधार चक्र तक लाये. इस क्रिया के लगातार अभ्यास के बाद कुछ समय तक निश्चल हो कर बैठे.उस समय मस्तिष्क का शरीर और बाहरी वातावरण से ध्यान हट जायेगा. ईशु का ध्यान करने से वस्तु- चेतना देविक चेतना में परिवर्तित हो जाएगी और अनन्य शांति की प्राप्ति होगी.
मंतव्य
7 . क्रिया योग अभ्यास सद गुरु से दीक्षा लेने के बाद ही अक्षरश प्रणाली के अनुसार आरम्भ करना चाहिए.
8 . अभ्यास पूरे विश्वास,तन्मयता और बिना नागा प्रतिदिन दो बार होना चाहिए.
9 .हमारे स्वामी लहरी महाशय के अनुसार साधक की कोई भी समस्या हो, उसके समाधान के लिए क्रियायोग करें.
11 . क्रियायोगी की जिंदगी पर पुराने कर्म असर नहीं डालते बल्कि केवल आत्मा ही दिशा देती है.
12 . ईशु से सानिध्य होने पर डर /असुरक्षा से मुक्ति मिलेगी और पूर्ण प्रेम का समावेश होगा .
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